swpana sarathi
Thursday, July 2, 2015
Thursday, November 6, 2014
Wednesday, November 5, 2014
सुभाष चन्द्र बोस
भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेता
सुभाष चन्द्र बोस
जन्म: 23 जनवरी 1897,
मृत्यु: 18 अगस्त 1945
अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा भी उनका उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया।
नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो!" का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया।
21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया।
1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनायें माँगीं।
नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका जन्म दिन धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से सम्बन्धित दस्तावेज़ अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किये?
16 जनवरी 2014 (गुरुवार) को कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया।
कोलकाता के स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गांधी
से मिले। मुम्बई में गान्धीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ 20 जुलाई
1921 को गान्धी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गान्धीजी ने उन्हें
कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता
आकर दासबाबू से मिले।
उन दिनों गान्धी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रक्खा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में सहभागी हो गये। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गये। उन्होंने सुभाष को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने वालों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
बहुत जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गान्धीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की। इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा।
26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गान्धीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिये गान्धी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गान्धीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गान्धी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गान्धी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गये।
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ।
1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से न केवल सम्बन्ध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया।
5 नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिये यूरोप चले जायें। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि शायद वे कारावास में ही न मर जायें। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाष की कारागृह में मृत्यू हो जाये। इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।
1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।
सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी।
बाद में सुभाष यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस विश्लेषण में उन दोनों ने गान्धी के नेतृत्व की जमकर निन्दा की। उसके बाद विठ्ठल भाई पटेल जब बीमार हो गये तो सुभाष ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल नहीं बचे, उनका निधन हो गया।
विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी सारी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात् उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल ने इस वसीयत को लेकर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतने पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने भाई की सारी सम्पत्ति गान्धी के हरिजन सेवा कार्य को भेंट कर दी।
1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हे पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्त्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।
सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, अनिता पौने तीन साल की थी। अनिता अभी जीवित है। उसका नाम अनिता बोस फाफ है। अपने पिता के परिवार जनों से मिलने अनिता फाफ कभी-कभी भारत भी आती है।
1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना। यह कांग्रेस का 51 वाँ अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया।
इस अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी की।
1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चीनी जनता की सहायता के लिये डॉ॰ द्वारकानाथ कोटनिस के नेतृत्व में चिकित्सकीय दल भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाष ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया तब कई लोग उन्हे जापान की कठपुतली और फासिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाष न तो जापान की कठपुतली थे और न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।
1938 में गान्धीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर उन्हें सुभाष की कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।
1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गान्धी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गान्धी को खत लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने की विनती की। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।
सब समझते थे कि जब महात्मा गान्धी ने पट्टाभि सीतारमैय्या का साथ दिया हैं तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गान्धीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने रहे और अकेले शरदबाबू सुभाष के साथ रहे।
1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गान्धीजी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गान्धीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
3 मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की।
3 सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चहिये। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाष को विशेष आमन्त्रित के रूप में काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा।
अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।
इसके परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।
नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया।
काबुल में सुभाष दो महीनों तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें नाकामयाब रहने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।
बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये।
आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। उन्होने सुभाष को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और माईन काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अन्त में सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एकमात्र अदला-बदली हुई थी। यह जापानी पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह तक पहुँचाकर आयी।
सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।
जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने जापान की संसद (डायट) के सामने भाषण दिया।
21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।
आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
पूर्वी एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने " दिल्ली चलो" का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।
जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श प्रस्तुत किया।
6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गान्धीजी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिये उनका आशीर्वाद भी माँगा। इस प्रकार नेताजी ने ही सर्वप्रथम गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपने अपमान के बदले उन्हें सम्मानित करने का कार्य किया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।
23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।
आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् १९४६ के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।
आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।
जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।
सुभाष चन्द्र बोस
जन्म: 23 जनवरी 1897,
मृत्यु: 18 अगस्त 1945
अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा भी उनका उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया।
नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो!" का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया।
21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया।
1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनायें माँगीं।
नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका जन्म दिन धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से सम्बन्धित दस्तावेज़ अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किये?
16 जनवरी 2014 (गुरुवार) को कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया।
उन दिनों गान्धी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रक्खा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में सहभागी हो गये। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गये। उन्होंने सुभाष को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने वालों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
बहुत जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गान्धीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की। इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा।
26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गान्धीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिये गान्धी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गान्धीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गान्धी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गान्धी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गये।
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ।
1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से न केवल सम्बन्ध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया।
5 नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिये यूरोप चले जायें। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि शायद वे कारावास में ही न मर जायें। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाष की कारागृह में मृत्यू हो जाये। इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।
1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।
सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी।
बाद में सुभाष यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस विश्लेषण में उन दोनों ने गान्धी के नेतृत्व की जमकर निन्दा की। उसके बाद विठ्ठल भाई पटेल जब बीमार हो गये तो सुभाष ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल नहीं बचे, उनका निधन हो गया।
विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी सारी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात् उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल ने इस वसीयत को लेकर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतने पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने भाई की सारी सम्पत्ति गान्धी के हरिजन सेवा कार्य को भेंट कर दी।
1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हे पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्त्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।
सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, अनिता पौने तीन साल की थी। अनिता अभी जीवित है। उसका नाम अनिता बोस फाफ है। अपने पिता के परिवार जनों से मिलने अनिता फाफ कभी-कभी भारत भी आती है।
1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना। यह कांग्रेस का 51 वाँ अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया।
इस अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी की।
1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चीनी जनता की सहायता के लिये डॉ॰ द्वारकानाथ कोटनिस के नेतृत्व में चिकित्सकीय दल भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाष ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया तब कई लोग उन्हे जापान की कठपुतली और फासिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाष न तो जापान की कठपुतली थे और न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।
1938 में गान्धीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर उन्हें सुभाष की कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।
1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गान्धी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गान्धी को खत लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने की विनती की। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।
सब समझते थे कि जब महात्मा गान्धी ने पट्टाभि सीतारमैय्या का साथ दिया हैं तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गान्धीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने रहे और अकेले शरदबाबू सुभाष के साथ रहे।
1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गान्धीजी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गान्धीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
3 मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की।
3 सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चहिये। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाष को विशेष आमन्त्रित के रूप में काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा।
अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।
इसके परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।
नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया।
काबुल में सुभाष दो महीनों तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें नाकामयाब रहने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।
बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये।
आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। उन्होने सुभाष को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और माईन काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अन्त में सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एकमात्र अदला-बदली हुई थी। यह जापानी पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह तक पहुँचाकर आयी।
सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।
जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने जापान की संसद (डायट) के सामने भाषण दिया।
21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।
आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
पूर्वी एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने " दिल्ली चलो" का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।
जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श प्रस्तुत किया।
6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गान्धीजी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिये उनका आशीर्वाद भी माँगा। इस प्रकार नेताजी ने ही सर्वप्रथम गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपने अपमान के बदले उन्हें सम्मानित करने का कार्य किया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।
23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव
हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।
आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् १९४६ के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।
आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।
जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।
Tuesday, November 4, 2014
सम्राट अशोक
अशोक जन्म: इ.स.पू. ३०४ -मृत्यू इ.स.पू. २३२ हा मौर्य घराण्यातील प्रसिद्ध सम्राट होता. त्याने भारतावर इ.स.पू. २७२ - इ.स.पू. २३२ च्या दरम्यान राज्य केले. आपल्या सुमारे ४० वर्षांच्या विस्तृत राज्यकाळात त्याने पश्चिमेकडे अफगाणिस्तान व थोडा इराण, पूर्वेकडे आसाम तर दक्षिणेकडे म्हैसूरपर्यंत
आपला राज्य विस्तार केला. सम्राट अशोकाला भारताच्या इतिहासात सर्वांत महान
सम्राटांचे स्थान दिले आहे. असे मानतात की प्राचीन भारताच्या परंपरेत
चक्रवर्ती सम्राटांची पदवी फक्त महान सम्राटांना दिली ज्यांनी जनमानसावर
तसेच भारताच्या मोठ्या भूभागावर राज्य केले. भारताच्या इतिहासात असे अनेक चक्रवर्ती सम्राट होउन गेले ज्यांचे उल्लेख प्राचीन ग्रंथांमध्ये रामायण, महाभारत आहे.
कलिंग चे युद्ध हे भारताच्या इतिहासातील एक महत्त्वाचा अध्याय आहे. अशोक
वर नमूद केल्याप्रमाणे युद्धखोर झाला होता. सर्वत्र त्याची ओळख चंड अशोक
म्हणून होउ लागली होती. भारताचा बहुतांशी भाग मौर्य अधिपत्याखाली आला तरी
अजूनही कलिंग हे स्वतंत्र राज्यच होते. प्राचीन कलिंग ह्या देशात हे आजच्या
आधुनिक भारतातील ओडिशा तसेच छत्तीसगड व झारखंड मधील काही भाग येतात.
कलिंग युद्धाची कारणे अजून स्पष्ट होत नाहीत. सामाजिक तसेच आर्थिक कारणे ही मुख्य मानली जातात. त्यातील एक प्रमुख कारण म्हणजे कलिंग हे प्रबळ राज्य होते. मौर्यांच्या पूर्वीच्या मोहिमांना फारसे यश लाभले नव्हते. तसेच बाह्य जगाशी व्यावसायवृद्धीसाठी अशोकाला समुद्र किनाऱ्यावर सत्ता हवी होती, जी कलिंगाकडे होती. तिसरे कारण अजूनही स्पष्ट नाही ते म्हणजे कलिंग हे खनिज समृद्ध देश होता. त्यावर नियंत्रण मिळवण्यासाठी अशोकाने युद्ध केले असावे. कारणे असली तरी युद्ध होण्यासाठी सबळ कारणाची गरज होती. युद्ध साधारणपणे इस पूर्व २६५ सुमारास सुरू झाले. सुशीमच्या एक भावाने कलिंगामध्ये मदत घेतली होती. अशोक ने हे कारण मानले व कलिंगला शरण येण्यास सांगितले.
कलिंग युद्धाची कारणे अजून स्पष्ट होत नाहीत. सामाजिक तसेच आर्थिक कारणे ही मुख्य मानली जातात. त्यातील एक प्रमुख कारण म्हणजे कलिंग हे प्रबळ राज्य होते. मौर्यांच्या पूर्वीच्या मोहिमांना फारसे यश लाभले नव्हते. तसेच बाह्य जगाशी व्यावसायवृद्धीसाठी अशोकाला समुद्र किनाऱ्यावर सत्ता हवी होती, जी कलिंगाकडे होती. तिसरे कारण अजूनही स्पष्ट नाही ते म्हणजे कलिंग हे खनिज समृद्ध देश होता. त्यावर नियंत्रण मिळवण्यासाठी अशोकाने युद्ध केले असावे. कारणे असली तरी युद्ध होण्यासाठी सबळ कारणाची गरज होती. युद्ध साधारणपणे इस पूर्व २६५ सुमारास सुरू झाले. सुशीमच्या एक भावाने कलिंगामध्ये मदत घेतली होती. अशोक ने हे कारण मानले व कलिंगला शरण येण्यास सांगितले.
सुरुवातीच्या लढायांमध्ये कलिंगाच्या सेनापतींनी चांगलीच झुंज दिली व
अशोकाच्या सैन्याला मात दिली. या पराभवाने अजून अशोकाने चवताळून जाउन अजून
मोठ्या सैन्यासह कलिंगावर आक्रमण केले. कलिंगाच्या सैन्याने मोठ्या
धैर्याने युद्ध लढले परंतु अशोकाच्या सैन्य ताकद व सैनिकी डावपेचापुढे काही
चालले नाही. अशोकाने पुढे सैन्याला संपूर्ण कलिंग मध्ये दहशत माजवला
मोठ्या प्रमाणावर लोकांचे शिरकाण करण्यात आले. या युद्दाच्या शिलालेखावरील
नोंदींनुसार साधारणपणे १ लाखाहून अधिक सैनिक व नागरिक मारले गेले होते.
मोठ्या प्रमाणावर नागरिकांना हद्दपार करण्यात आले.
अशोकाने कलिंगचे युद्ध पार पडल्यानंतर जिकलेल्या रणांगणाची व शहरांची पहाणी
करायची ठरवली, व त्यावेळेस त्याने पाहिले ते फक्त सर्वत्र पडलेले
प्रेतांचे ढीग, सडणाच्या दुर्गंध, जळलेली शेती, घरे व मालमत्ता. हे पाहून
अशोकाचे मन उदास झाले व यासाठीच का मी हे युद्ध जिंकले व हा विजय नाहीतर
पराजय आहे असे म्हणून त्या प्रचंड विनाशाचे कारण स्वता:ला मानले. हा
पराक्रम आहे की दंगल, व बायका मुले व इतर अबलांचा हत्या कशासाठी व यात कसला
प्रराक्रम असे स्वता:लाच प्रश्ण विचारले. एका राज्याची संपन्नता
वाढवण्यासाठी दुसऱ्या राज्याचे अस्तित्वच हिरावून घ्यायचे. ह्या विनाशकारी
युद्धानंतर शांती, अहिंसेचा,
प्रेम दया ही मूलभूत तत्त्वे असलेला बौद्ध धर्मियांचा मार्ग अशोकाने
अवलंबायचे ठरवले व तसेच त्याने स्वता.ला बौद्ध धर्माचा प्रसारक म्हणूनही
काम करायचे ठरावले. या नंतर अशोकाने केलेले कार्य त्याला इतर कोणत्याही
महान सम्राटांपेक्षा वेगळे ठरवतात. इतिहासातील एक अतिशय वेगळी घटना ज्यात
क्रूरकर्मा राज्यकर्त्याचे महान दयाळू सम्राटात रुपांतर झाले. बौद्द
धर्माचा जगभर झालेल्या प्रसारास खूप मोठ्या प्रमाणावर अशोकाने केलेले कार्य
जवाबदार असे बहुतेक इतिहासकार मानतात.
Monday, October 20, 2014
प्रेम म्हणजे नक्की काय…
प्रेम म्हणजे नक्की काय…….
मला माझ्या मित्राने विचारले कि प्रेम म्हणझे नेमके काय ?
मी त्याला सागितले की,
कितीही जवळ जाणार असेल तरी गाडी सावकाश चालव आणि पोहचल्यावर फोन कर असे आईचे काळजीचे बोल म्हणजे प्रेम.
दिवाळीला स्वतःसाठी साधे कपडे न घेता मुला-मुलीसाठी त्यांच्या पसंतीचे महागातले जीन्स आणि कपडे घेणारे बाबा म्हणजे प्रेम.
कितीही मस्ती केली व रात्री लेट झाले तरी आई-बाबाना न सांगता हळूच दार उघडणारे आजी-आजोबा म्हणजे प्रेम.
कितीही वाद झाले तरी दादा जेवलास का अशी विचाणारी बहिण म्हणजे प्रेम.
पगार कितीही कमी असेल तरी दिवाळी भाऊभीजला बहिणीच्या पसंतीचे घड्याळ घेणारा भाऊ म्हणजे प्रेम.
आणि या सर्वांची काळजी घेवून स्वतःची काळजी न करता सकाळी पहाटे उठून जेवणाचा डबा बनवणारी बायको म्हणजे प्रेम...
मला माझ्या मित्राने विचारले कि प्रेम म्हणझे नेमके काय ?
मी त्याला सागितले की,
कितीही जवळ जाणार असेल तरी गाडी सावकाश चालव आणि पोहचल्यावर फोन कर असे आईचे काळजीचे बोल म्हणजे प्रेम.
दिवाळीला स्वतःसाठी साधे कपडे न घेता मुला-मुलीसाठी त्यांच्या पसंतीचे महागातले जीन्स आणि कपडे घेणारे बाबा म्हणजे प्रेम.
कितीही मस्ती केली व रात्री लेट झाले तरी आई-बाबाना न सांगता हळूच दार उघडणारे आजी-आजोबा म्हणजे प्रेम.
कितीही वाद झाले तरी दादा जेवलास का अशी विचाणारी बहिण म्हणजे प्रेम.
पगार कितीही कमी असेल तरी दिवाळी भाऊभीजला बहिणीच्या पसंतीचे घड्याळ घेणारा भाऊ म्हणजे प्रेम.
आणि या सर्वांची काळजी घेवून स्वतःची काळजी न करता सकाळी पहाटे उठून जेवणाचा डबा बनवणारी बायको म्हणजे प्रेम...
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
फक्त तुझ्यासाठी..... आयुष्य असेच सरले,
धावत आठवणींच्या पाठी सबंध आयुष्य वाट पहिली,मी फक्त तुझ्यासाठी....
फक्त तुझ्यासाठी..... आयुष्य असेच सरले,
धावत आठवणींच्या पाठी सबंध आयुष्य वाट पहिली,मी फक्त तुझ्यासाठी....
तुझ्या येण्याची वाट पाहत, शब्द गोठले आज ओठी ह्रुदयात दुःखाचे भास कवळले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
जगले अशी की मी, जगणे राहून गेले पाठी डोळ्यातले अश्...रु ह्रुदयात कोंडले
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
हर घडी तुझ्या प्रेमाची, मनात ठेवली आस मोठी त्या आशेवर जगत राहिले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
हर घडी तुझ्या प्रेमाची, मनात ठेवली आस मोठी त्या आशेवर जगत राहिले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
तुझ्याच समोर झुकते मन, हे मन ही आहे फार हट्टी याच हट्टावर आयुष्य बेतले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
तुझ्याच समोर झुकते मन, हे मन ही आहे फार हट्टी याच हट्टावर आयुष्य बेतले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
नाशिबाशी झगडत झगडत, न तोड़ता प्रेमाच्या गाठी त्या गाठीना सामभालुन, ठेवले
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
एक एक क्षण तुझ्या प्रेमाचा, आज माझ्या डोळ्यात दाटीत्या क्षणानना उराशी कवटाळले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
अंधार विजत उजेड यावा, भान विसरून जूळावि मीठी याच स्वप्नांना आयुष्य समजले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
तुझीच वाट पाहत, जळले ह्रदय प्रेमाकाटीभिन्न दिशांना झुरत राहिले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
तुझीच वाट पाहत, जळले ह्रदय प्रेमाकाटीभिन्न दिशांना झुरत राहिले,
मी फक्त तुझ्यासाठी.....
तुझ्यासाठी काही पण
तुझ्यासाठी काही पण
असे सारेच बोलतात
पण मी तसे बोलणार नाही
चंद्र तारे तोडून आणीन
अशी भाषा कधी
मी वापरणार नाही
इतकच म्हणेन मी
तुझ्या सुखाशिवाय मनात
काहीच असणार नाही
तुझ्या वेदना ओंजळीत घेईन
दुखातही तुझी साथ
कधी सोडणार नाही
प्रेमासाठी काही पण
हे तुला दाखवल्याशिवाय
मी रहाणार नाही
तुझ्यावर इतकं केलय प्रेम
कि माझ्यावरही कधी
इतकं प्रेम मी केलं नाही
असे सारेच बोलतात
पण मी तसे बोलणार नाही
चंद्र तारे तोडून आणीन
अशी भाषा कधी
मी वापरणार नाही
इतकच म्हणेन मी
तुझ्या सुखाशिवाय मनात
काहीच असणार नाही
तुझ्या वेदना ओंजळीत घेईन
दुखातही तुझी साथ
कधी सोडणार नाही
प्रेमासाठी काही पण
हे तुला दाखवल्याशिवाय
मी रहाणार नाही
तुझ्यावर इतकं केलय प्रेम
कि माझ्यावरही कधी
इतकं प्रेम मी केलं नाही
Sunday, October 19, 2014
का रडतेस आता आणि कशासाठी ?
का रडतेस आता आणि
कशासाठी ?
कोणीतरी सांगितले रडलीस
फक्त माझ्यासाठी..
तेव्हा तर हसत हसत
मला दूर केले,
मग आता रडून दाखवून
तू काय सिध्द केले..
जेव्हा मला खरी गरज होती तेव्हा,
मला तर एकट्यालाचं सोडले..
मात्र तुझ्या सोबतीला कोणीतरी होते,
म्हणून तू मागे वळून नाही पाहिले..
आता मला सवय लागली आहे
तुझ्याशिवाय जगण्याची,
मग तू का आस लावली आहेस
माझी परत येण्याची..
नको रडून मजबूर करूस मला परत
येण्यासाठी,
कारण
?
?
?
?
?
आता मी पुन्हा येणार नाही ते
दुःख सोसण्यासाठी.......
कशासाठी ?
कोणीतरी सांगितले रडलीस
फक्त माझ्यासाठी..
तेव्हा तर हसत हसत
मला दूर केले,
मग आता रडून दाखवून
तू काय सिध्द केले..
जेव्हा मला खरी गरज होती तेव्हा,
मला तर एकट्यालाचं सोडले..
मात्र तुझ्या सोबतीला कोणीतरी होते,
म्हणून तू मागे वळून नाही पाहिले..
आता मला सवय लागली आहे
तुझ्याशिवाय जगण्याची,
मग तू का आस लावली आहेस
माझी परत येण्याची..
नको रडून मजबूर करूस मला परत
येण्यासाठी,
कारण
?
?
?
?
?
आता मी पुन्हा येणार नाही ते
दुःख सोसण्यासाठी.......
Monday, October 6, 2014
अचानक शाळेतला मित्र भेटला..
परवा अचानक शाळेतला,
जुना मित्र भेटला..
"ओळखलसं का मला?",
विचारलं त्याने हसुन...
वेळ असेल तुला तर,
बोलुया थोडं बसुन...
गाडी पाहताचं आनंदला,
हलवली हळूच मान...
"खुप मोठा झालासं रे,
पैसा कमावलासं छानं"
अजुनही भेटतात का रे,
रुपेश, राजू , प्रदीप ...?
टाळ्या देत करत असालं,
मनमोकळ्या गोष्टी...
डबा रोज खाता का रे,
एकमेकांचा चोरुन?
निसरड्या वाटा चालता का,
हाती हात धरुन..?
टचकन् डोळ्यात पाणी आलं,
कंठ आला भरुन...
मित्र सुटले, भेटी सरल्या,
सोबत गेली सरुन...
धावता धावता सुखामागे,
वळुन जेंव्हा पाह्यलं...
एकटाचं पुढे आलो मी,
आयुष्य मागे राह्यलं...
तेव्हढ्यात आला शेजारी,
अन् घेतलं मला कुशीत...
बस म्हणाला क्षणभर जवळ,
नक्की येशील खुशीत...
"अरे वेड्या पैश्यापाठी,
फिरतोस वणवण...
कधी तरी थांबुन बघ,
फिरवं मागे मन..."
मित्र सगळे जमवं पुन्हा,
जेव्हा येईल वीट...
वंगण लागतं रे चाकांना,
मग गाडी चालते नीट...
शाळेतल्या त्या सोबत्याचा,
खुप आधार वाटला...
परवा अचानक शाळेतला,
जुना मित्र भेटला...
विचारलं त्याने हसुन...
वेळ असेल तुला तर,
बोलुया थोडं बसुन...
गाडी पाहताचं आनंदला,
हलवली हळूच मान...
"खुप मोठा झालासं रे,
पैसा कमावलासं छानं"
अजुनही भेटतात का रे,
रुपेश, राजू , प्रदीप ...?
टाळ्या देत करत असालं,
मनमोकळ्या गोष्टी...
डबा रोज खाता का रे,
एकमेकांचा चोरुन?
निसरड्या वाटा चालता का,
हाती हात धरुन..?
टचकन् डोळ्यात पाणी आलं,
कंठ आला भरुन...
मित्र सुटले, भेटी सरल्या,
सोबत गेली सरुन...
धावता धावता सुखामागे,
वळुन जेंव्हा पाह्यलं...
एकटाचं पुढे आलो मी,
आयुष्य मागे राह्यलं...
तेव्हढ्यात आला शेजारी,
अन् घेतलं मला कुशीत...
बस म्हणाला क्षणभर जवळ,
नक्की येशील खुशीत...
"अरे वेड्या पैश्यापाठी,
फिरतोस वणवण...
कधी तरी थांबुन बघ,
फिरवं मागे मन..."
मित्र सगळे जमवं पुन्हा,
जेव्हा येईल वीट...
वंगण लागतं रे चाकांना,
मग गाडी चालते नीट...
शाळेतल्या त्या सोबत्याचा,
खुप आधार वाटला...
परवा अचानक शाळेतला,
जुना मित्र भेटला...
Wednesday, October 1, 2014
संस्कृती पूर्वीची आणि आजची
भारतची संस्कृती ही सर्व भागांमध्ये वेगळी पण वैशिष्ट्य पूर्ण आहे. गणपती उत्सव , दशारा , दिवाळी , गुडीपाडवा नवरात्री उत्सव अश्या विविध उत्सवातून आपल्याला संस्कृती पाहायला मिळते .
दिवाळी |
गणपती उत्सव |
नवरात्री |
गुडीपाडवा |
पण आज बघितल तर आपल्याला संस्कृतीचा विसर पडला आहे .
आपण हे उत्सव celibration समजून साजरा करतो.पूर्वीपासूनच मेहंदी काढणे हि परंपरा आपल्याकडे आहे
परंतु आजकाल आपल्याला अंगावर गोधवलेल हेच बघायला मिळते .
आपल्या पोशाखात खूप बदल झालेत आणि संस्कृती नावापुर्तीच राहिलेली आहे, यासर्वांचे परिणाम आपण बघतोच आहे. स्त्रिया व मुली साडी आणि ड्रेस वापरतात, पण आजच्या जीन्स आणि टापच्या fashion मुळे अंगप्रदर्शन करून संस्कृती आणि लाज संपूष्टातच आणली आहे.
ब्लॉग विषयी
स्वप्नं आपण नेहमीच बघतो, स्वप्नं बघणे आणि ते पूर्ण करणे सर्वांनाच जमत नाही .स्वप्नं बघणे हा जणू माझा छंदच होता मी शाळेत असताना पासूनच खूप स्वप्नं बघितली. अर्थातच माझी स्वप्ने हि माझ्या आजूबाजूला ज्या घडामोडी घडत होत्या त्या संदर्भाने होती, मी मोठा होत गेलो तशी माझी स्वप्ने हि बदली .
मी अनेक स्वप्ने बघितली पण सर्वच स्वप्नांमध्ये माझ्या कुटुंबासाठी जे मी स्वप्नं बघितलं ते सर्वच स्वप्नामध्ये सारखच होत आणि आज पण मी जे स्वप्नं बघतो त्यात माझ्या कुटुंबासाठी जे मी स्वप्नं बघितलं ते तेच आहे. मी बघितलेली स्वप्न कधी पूर्ण होतील याचा विचार केला नाही, आजपर्यंतच्या जीवनाचा विचार केला तर मी खूप स्वप्नं बघितली आणि आज पण स्वप्नं बघतोपरंतु आज जे स्वप्नं बघतो ते पूर्ण होण्यासाठी प्रयत्न करत आहे आणि ते पूर्ण होईलच. मी आजपर्यंतच्या जीवनात स्वप्नं बरोबर घेऊनच जीवन जगलो, आणि त्यामुळे मला माझ्या ब्लोगच नाव " स्वप्नं सारथी " हे सुचल .
मी अनेक स्वप्ने बघितली पण सर्वच स्वप्नांमध्ये माझ्या कुटुंबासाठी जे मी स्वप्नं बघितलं ते सर्वच स्वप्नामध्ये सारखच होत आणि आज पण मी जे स्वप्नं बघतो त्यात माझ्या कुटुंबासाठी जे मी स्वप्नं बघितलं ते तेच आहे. मी बघितलेली स्वप्न कधी पूर्ण होतील याचा विचार केला नाही, आजपर्यंतच्या जीवनाचा विचार केला तर मी खूप स्वप्नं बघितली आणि आज पण स्वप्नं बघतोपरंतु आज जे स्वप्नं बघतो ते पूर्ण होण्यासाठी प्रयत्न करत आहे आणि ते पूर्ण होईलच. मी आजपर्यंतच्या जीवनात स्वप्नं बरोबर घेऊनच जीवन जगलो, आणि त्यामुळे मला माझ्या ब्लोगच नाव " स्वप्नं सारथी " हे सुचल .
Monday, September 29, 2014
दिपावली
दिपावलीच्या खूप खूप शुभेच्छा !!!!!
१. वसुबारस !
गाय आणि वासारच्या अंगी असणारी उदारता,
प्रसन्नता, शांतता आणि समृद्धी आपणास
लाभो !
.
.२. धनत्रयोदशी !
धन्वंतरी आपणावर सदैव प्रसन्ना असू देत !
निरामय आरोग्यदायी जीवन आपणास लाभो !
धनवर्षाव आपणाकडे अखंडित होवो !
..
३. नरकचतुर्दशी !
सत्याचा असत्यावर नेहमीच प्रभाव असावा !
अन्यायाचा प्रतिकार करण्याच बळ
आपल्याला लाभो !!
आपल्याकडून नेहमी सत्कर्म
घडो ! आपणास स्वर्ग सुख नित्य लाभो !!
. .
४. लक्ष्मिपुजन !
लक्ष्मीचा सहवास आपल्या घरी नित्य राहावा !
नेहमी चांगल्या मार्गाने आपणास लक्ष्मी प्राप्त
होवो ! लक्ष्मीपूजनाचे भाग्य
आपल्याला नेहमीच लाभो ! घरची लक्ष्मी प्रसन्ना तर सारे घर प्रसन्न !
.
.५. पाडवा अर्थात बलिप्रतिपदा !
पाडवा आगमनाने आपल्या आयुष्यात सदैव
गोडवा यावा ! सत्याचा असत्यावरचा विजय नेहमीच नव्याने प्रेरणा देत राहो ! थोरा मोठ्यांचे
आशीर्वाद आपल्याला मिळत राहो !
..
६. भाऊबीज !
जिव्हाळ्याचे संबंध दर्दिव्सागानिक उजळत राहू दे ! भावा-बहिणीची साथ आयुष्यभर अतूट
राहो दे !
१. वसुबारस !
गाय आणि वासारच्या अंगी असणारी उदारता,
प्रसन्नता, शांतता आणि समृद्धी आपणास
लाभो !
.
.२. धनत्रयोदशी !
धन्वंतरी आपणावर सदैव प्रसन्ना असू देत !
निरामय आरोग्यदायी जीवन आपणास लाभो !
धनवर्षाव आपणाकडे अखंडित होवो !
..
३. नरकचतुर्दशी !
सत्याचा असत्यावर नेहमीच प्रभाव असावा !
अन्यायाचा प्रतिकार करण्याच बळ
आपल्याला लाभो !!
आपल्याकडून नेहमी सत्कर्म
घडो ! आपणास स्वर्ग सुख नित्य लाभो !!
. .
४. लक्ष्मिपुजन !
लक्ष्मीचा सहवास आपल्या घरी नित्य राहावा !
नेहमी चांगल्या मार्गाने आपणास लक्ष्मी प्राप्त
होवो ! लक्ष्मीपूजनाचे भाग्य
आपल्याला नेहमीच लाभो ! घरची लक्ष्मी प्रसन्ना तर सारे घर प्रसन्न !
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.५. पाडवा अर्थात बलिप्रतिपदा !
पाडवा आगमनाने आपल्या आयुष्यात सदैव
गोडवा यावा ! सत्याचा असत्यावरचा विजय नेहमीच नव्याने प्रेरणा देत राहो ! थोरा मोठ्यांचे
आशीर्वाद आपल्याला मिळत राहो !
..
६. भाऊबीज !
जिव्हाळ्याचे संबंध दर्दिव्सागानिक उजळत राहू दे ! भावा-बहिणीची साथ आयुष्यभर अतूट
राहो दे !
भाऊबीज
कार्तिक शुद्ध द्वितीयेस भाऊबीज हा सण साजरा केला जातो.
हा दिवस म्हणजे शरद ऋतूतील कार्तिक मासातील द्वितीया. द्वितीयेचा चंद्र आकर्षक व वर्धमानता दाखवणारा आहे. तेव्हा ‘बीजेच्या कोरीप्रमाणे बंधुप्रेमाचे वर्धन होत राहो’, ही त्यामागची भूमिका आहे.’ आपल्या मनातील द्वेष व असूया निघाल्यामुळे सर्वत्र बंधुभावनेची कल्पना जागृत होते; म्हणून त्याकरिता भाऊबीजेच्या सण.
बंधू-भगिनींचा प्रेमसंवर्धनाचा हा दिवस आहे. ज्या समाजात भगिनींना समाजातील व राष्ट्रातील पुरुष वर्ग भगिनी समजून त्यांच्या संरक्षणाची जबाबदारी घेऊन त्यांना अभय देतील व त्यामुळे त्या समाजात निर्भयतेने फिरू शकतील, तो दिवस, म्हणजे दीपावलीतील भाऊबीज पूजनाचा दिवस.
या दिवशी बहिणीच्या घरी भाऊ गोडधोड भोजन करतो आणि सायंकाळी चंद्राची कोर दिसल्यानंतर बहीण प्रथम चंद्रकोरीस व नंतर भावाला ओवाळते. भाऊ मग ओवाळणीच्या ताटात ‘ओवाळणी’ देऊन बहिणीचा सत्कार करतो.
पाऊस
म्हणायला तुझा तो चंद्र लाडका किती
छतावर जमल्यात बघं तारका किती?
मी उगा देवू किती कारणे न बोलायची
अन तुझा तो अबोला हि बोलका किती?
मी पाहिलंय तुला चालताना एकट्याने
गरीबे दाखवले काय, तो घोळका किती?
भिजवले वैशाखात मला गुन्हा तुझाच
पाठवला आठवांचा ढग गळका किती?
भूक पोटात अन डोळ्यात माणसाच्या
मुक्या प्राण्यांचा त्यांना पुळका किती?
तू शाश्वत तू प्रमाण सारेच जाणतो मी
जगावा आयुष्याचा भाग नेमका किती?
पेरून जाणीवांना तो राबतो रात्रंदिनी
"पाऊस" मायबाप तरी पोरका किती?
Saturday, September 27, 2014
नवरात्री
नवरात्र साजरे करण्यामागचे कारण
मार्कंडेय पुराणांतर्गत देवी महात्म्यात सांगितले आहे. जगात तामसी व क्रूर
लोकांची संख्या वाढून ते इतरांना त्रास देऊ लागतात तेव्हा सज्जनांना
त्रासमुक्त करण्यासाठी, त्यांना त्यांचे स्थान पुन्हा मिळवून देण्यासाटी
शक्तीदेवता या धरतीवर अवतीर्ण होते. दुष्टांच्या निर्दालनासाठी देवीने अनेक
अवतार घेतले.
नवरात्रीतली प्रत्येक रात्र आदिशक्तीच्या पुढील नावावरुन प्रचलित आहे.
पहिली रात्र - शैलपुत्री
दुसरी रात्र - ब्रह्मचारिणी
तिसरी रात्र - चंद्रघंटा
चौथी रात्र - कुश्मांदा
पाचवी रात्र - स्कंदमाता
सहावी रात्र - कात्यायनी
सातवी रात्र - कालरात्री
आठवी रात्र - चामुंडा
नववी रात्र - सिध्दीदात्री
या आदिशक्तीच्या एक एक रुपाची ओळख आपण रोज करून घेणार आहोत .
01.दुर्गेचे पहिले रूप 'शैलपुत्री'
या नावाने ओळखले जाते. ही नवदुर्गांपैकी पहिली दुर्गा आहे. पर्वतराज
हिमालयाची मुलगी म्हणून जन्म घेतल्यामुळे तिला 'शैलपुत्री' असे नाव पडले
आहे.
02.नवशक्तीपैकी
'ब्रम्हचारिणी' हे दुर्गेच्या दुसरे रूप आहे. येथे 'ब्रह्म' या शब्दाचा
अर्थ तपस्या आहे. ब्रम्हाचारिणी म्हणजे तपाचे आचरण करणारी. नवरात्राच्या
दुसर्या दिवशी या मातेची पूजा केली जाते.
03.दुर्गेच्या तिसर्या शक्तीचे नाव 'चंद्रघंटा' आहे.
नवरात्रीच्या तिसर्या दिवशी या देवीची पूजा केली जाते. तसेच संकट
निवारणासाठी देखील या दिवशी पूजा केली जाते. या दिवशी साधकाचे मन 'मणिपूर' चक्रात प्रविष्ट होते. चंद्रघंटेच्या कृपेने अलौकीक वस्तुचे दर्शन होते
04.दुर्गेच्या चौथ्या रूपाचे नाव 'कुष्मांडा' आहे.
आपल्या स्मित हास्यामुळे ब्रह्मांड उत्पन्न केल्यामुळे या देवीला
कुष्मांडा देवी असे म्हटले जाते. संस्कृतमध्ये कुष्मांडाला कुम्हड असे
म्हणतात. कुम्हड्यांचा बळी तिला अधिक प्रिय आहे. या कारणामुळेही तिला
कुष्मांडा म्हणून ओळखले जाते.
05.दुर्गेचे पाचवे रूप 'स्कंदमाता' या नावाने ओळखले जाते. नवरात्रीच्या पाचव्या दिवशी देवीची पूजा केली जाते. या दिवशी साधकाचे मन 'विशुद्ध' चक्रात स्थिर झालेले असते. भगवान स्कंद लहानपणी या देवीच्या काखेत बसले होते.
06.दुर्गेचे हे सहावे रूप
कात्यायनी या नावाने ओळखले जाते. दुर्गा पूजेच्या सहाव्या दिवशी या देवीची
उपासना केली जाते. या दिवशी साधकाचे मन 'आज्ञा' या चक्रात स्थिर होते.
योगसाधनेत या आज्ञा चक्राचे विशेष स्थान आहे. या चक्रात स्थिर झालेला साधक
कात्यायनीच्या चरणी आपले सर्वस्व वाहून देतो. परिपूर्ण आत्मदान करणार्या
भक्ताला देवी सहजपणे दर्शन देते.
07.दुर्गेचे सातवे रूप
'कालरात्री' या नावाने प्रसिद्ध आहे. नवरात्रीच्या सातव्या दिवशी
कालरात्रीची पूजा केली जाते. या दिवशी साधकाचे मन 'सहार' चक्रात स्थिर
झालेले असते. यासाठी ब्रह्मांडाच्या समस्त सिद्धिंचे दरवाजे उघडू लागतात.
या चक्रात स्थिर झालेल्या साधकाचे मन पूर्णत: कालरात्रीच्या रूपाकडे
आकर्षित झालेले असते. तिच्या साक्षात्कारापासून मिळणार्या पुण्याचा तो
भागीदार होतो. त्याच्या संपूर्ण पापांचा नाश होतो. त्याला अक्षय पुण्य
लोकांची प्राप्ती होते.
08.दुर्गा मातेचे आठवे रूप
म्हणजे महागौरी होय. दुर्गापूजेच्या आठव्या दिवशी महागौरीची पूजा केली
जाते. महागौरीची पूजा केल्याने सर्व पापे धुऊन जातात. भविष्यात पाप-संताप,
दु:ख त्याच्याजवळ कधीही येत नाही. तो सर्व प्रकारच्या पवित्र आणि अक्षय
पुण्याचा अधिकारी होतो. या देवीचा रंग पूर्णत: गोरा आहे. या गोर्यापराची
उपमा शंख, चंद्र आणि कुंदाच्या फुलापासून दिली आहे. या देवीचे वय आठ वर्ष
मानले जाते, 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी।' तीचे वस्त्र आणि आभूषणदेखील श्वेत
रंगाची आहेत.
09.दुर्गा मातेची नववी शक्ती म्हणजे सिद्धीदात्री होय. ही सर्व प्रकारची सिद्धी देणारी देवी आहे. दुर्गा पूजेच्या नवव्या दिवशी या देवीची पूजा केली जाते. या दिवशी शास्त्रोक्त विधी पूर्ण निष्ठेने करणार्या साधकांना सर्व प्रकारची सिद्धी प्राप्त होते. ब्रह्मांडावर पूर्ण विजय मिळविण्याचे सामर्थ्य त्यांच्यात येते.
09.दुर्गा मातेची नववी शक्ती म्हणजे सिद्धीदात्री होय. ही सर्व प्रकारची सिद्धी देणारी देवी आहे. दुर्गा पूजेच्या नवव्या दिवशी या देवीची पूजा केली जाते. या दिवशी शास्त्रोक्त विधी पूर्ण निष्ठेने करणार्या साधकांना सर्व प्रकारची सिद्धी प्राप्त होते. ब्रह्मांडावर पूर्ण विजय मिळविण्याचे सामर्थ्य त्यांच्यात येते.
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